Friday, September 20, 2013

बेठले खुद के साथ कभी तू...

भारत की राजधानी दिल्ली शहर मे एक जानेमाने मीडिया हाउस की ऑफिस। गर्मियो का मौसम। कार्यकारी संपादक जी की लक्जरी कार का इंजिन चालू था। शीशे बंध थे और ए.सी. ओन था। उनकी कार के बगल में ही मेरी कार लगी हुई थी। मेरी कार ओन होने की आवाज़ आते ही अपने लेपटोप मे लीन उनकी आँखें मेरी ओर घुमि। औपचारिक बातें होगी ये सोचकर मैंने मेरी कार बंध कर दी। पर पार्किंग से बहार निकलते वक्त उन्होंने मेरे मन में अजीबसी हलचल मचा दी। गाड़ी ओन रखके वे जनाब ग्लोबल वोर्मींग पर अपना आर्टिकल लिख रहे थे। एक तरफ बेफिजूल गाड़ी ओन न रखने की सलाह देता हुआ उनका आर्टिकल था तो दूसरी तरफ वे खुद अपनी ही लिखी हुई बात से विपरीत व्यव्हार कर रहे थे। ऑफिस मे सेंट्रली ए. सी. लगवाया हुआ था। वोही काम वे ऑफिस मे उनको दी गई केबिन में बेठ कर भी तो कर सकते थे।

मेरे और एक परिचित की बात भी इन महाशय से काफी मिलती जुलती है। फेसबुक-ओरकुट जैसी सोश्यल नेटवर्किंग साइट्स और ब्लॉगिंग सब को अपने विचार रखने की बेरोकटोक छुट देता है। ये सज्जन की सारी पोस्ट्स परिवार की एकता, दोस्तों का प्यार, सब के साथ अच्छा व्यव्हार, पति-पत्नी के रिश्ते को मजबूती कैसे दे, लड़ाई और आपसमे बैर तो किसीके साथ नहीं इत्यादि प्रकार की होती है। खुद अच्छा लिख भी लेते है। उनकी ये सारी बातें उनको बहोत समजदार और ठहरा हुआ इन्सान सिद्ध कर देती है पर सच्चाई तो उनके घरवाले और परिचित ही जानते है। इंटरनेट पर दिखनेवाली संत जैसी सीरत से बिल्कुल विपरीत प्रकृति वाले ये महानुभाव का पारा सातवे आसमान पर ही चढ़ा हुआ होता है। अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने तक वे अपनी महानता का भरपूर दिखावा करेंगे। पर काम निकल जाने पर आपसे नाता तोड्नेमे वे एक क्षण का विलम्ब नहीं करेंगे। एक बार ठान लिया कि फला आदमी को परेशान करना है, तो उसके पीछे ही पड़ जाते है। सामनेवाले की आंखोमे आंसू न आ जाये तब तक उसका पीछा नहीं छोडते। सहनशीलता और परिवार, मित्रो के बिच मेलजोल और प्यार की बुद्धिवाली बातें वे सिर्फ उनकी लेखनी तक ही सिमित रखते है। रोज़ शाम तक उनका एक झगड़ा हो ही जाता है। क्यूँ भाई? ऐसा दोगलापन क्यूँ?

अहमदाबाद से राजकोट जाते वक़्त बस मे क्लीनर ने मूवी लगाया पर सीडी ख़राब थी सो चल न पाई। मेरी बगलवाली सिट पर इंजिनियरिंग का एक विद्यार्थी बेठा हुआ था। हम दोनों ही बातूनी होने के कारण सफ़र अच्छा कटने लगा। उसने अपने चाचा के बारेमे जो बताया वो भी हमारे इस विषयसे अलग नहीं था। घर मे चाचाजी का वैसे तो कोई दूषण नहीं था पर जूठ बोलना उनकी आदत सी बन गई थी। माँ के सामने, बीवी के सामने, बच्चों के सामने अकारण ही जूठ बोलते रहते है। फिल्म देखने गए हो तो बीवी को बोलते है कि माँ को मत बताना, कुछ और बोल देना। माँ के लिए साडी लाएँगे तो उनको कहेंगे कि 'मौसी लाई है' ऐसा सबको बताए। किसीका फोन आये तो बच्चों को फोन दे कर कहने को बोलते है कि 'पापा घर पर नहीं है, मोबाईल भूल गए है' अब तो घरवाले उनके प्यार भरे व्यव्हार पर भी शंका करने लग गए है कि वो भी तो एक दिखावा हो सकता है! अब ऐसे रिश्ते क्या वाकई में रिश्ते है जिसकी बुनियाद जूठ पर टिकी हो, जहा पर भरोसा ही हो। कितना ही गलत आदमी क्यूँ हो पर अपने घर में कर वो भले पूरी तरह से सही पर थोडा सा सही तो बन ही जाता है। अपने परिवार के साथ वो अपनेआप को सुरक्षित महेसुस करता है। महानायक अमिताभ बच्चन जी ने 'कौन बनेगा करोडपति' के एक एपिसोड मे कही हुई एक बात याद यहाँ पर रही है, '' जब तक फिल्म के सेट पर हो तब तक हम वो किरदार निभाते है पर वहा से बहार निकलते ही हम लोग भी आम आदमी बन जाते है।"

ऐसे उदहारण देखते ही हिंदी मे प्रचलित मुहावरा याद आ जाता है। हाथी के दांत, खाने के और, दिखाने के और!!! लोग कहते है, सिर्फ दांतों के कारण ऐसे दोगले लोगों के साथ जोडके हाथी का नाम हम खामखा बदनाम कर रहे है। वास्तवमे आजकी लाइफ-स्टाइल में ऐसे लोगों की संख्या बढती जा रही है, जो अपनेआप को असुरक्षित समजते हो। परिणाम स्वरूप वे स्वार्थ भावना से घिरते जा रहे है और अपनी दुनिया छोटी कर के एक छोटे सर्कल मे अपनेआप को सिमित कर देते है। वहा उनके इलावा वे किसी ओर को स्थान नहीं दे पाते और सिर्फ अपने बारेमे ही सोचने लगते है। एक समय ऐसा भी रहा होगा जब वे ऐसे न थे। पर सही मार्गदर्शन और संगत के अभाव के कारण वे अपने 'वास्तविक स्वभाव' से दूर हो गए है। हम भी इन्ही मे से कोई एक के स्थान पर हो सकते है। इनको बचाना और खुद बचना मुमकिन है। शर्त बस इतनी है कि सिर्फ 'अपने बारेमे' सोचने के बजाये 'अपने भीतर' झांकना सिख ले। थोडा वक्त आँखे बंध करके अपनेआप को जानने की कोशिश करे। सारी समस्याओं का हल निकल आएगा। फिर कोई पराया न रहेगा। जब सब अपने हो जायेंगे तो फिर असुरक्षा कैसी और डर कहा रहेगा? उल्टा हर जगह अपना ही दर लगने लगेगा।