Friday, September 20, 2013

बेठले खुद के साथ कभी तू...

भारत की राजधानी दिल्ली शहर मे एक जानेमाने मीडिया हाउस की ऑफिस। गर्मियो का मौसम। कार्यकारी संपादक जी की लक्जरी कार का इंजिन चालू था। शीशे बंध थे और ए.सी. ओन था। उनकी कार के बगल में ही मेरी कार लगी हुई थी। मेरी कार ओन होने की आवाज़ आते ही अपने लेपटोप मे लीन उनकी आँखें मेरी ओर घुमि। औपचारिक बातें होगी ये सोचकर मैंने मेरी कार बंध कर दी। पर पार्किंग से बहार निकलते वक्त उन्होंने मेरे मन में अजीबसी हलचल मचा दी। गाड़ी ओन रखके वे जनाब ग्लोबल वोर्मींग पर अपना आर्टिकल लिख रहे थे। एक तरफ बेफिजूल गाड़ी ओन न रखने की सलाह देता हुआ उनका आर्टिकल था तो दूसरी तरफ वे खुद अपनी ही लिखी हुई बात से विपरीत व्यव्हार कर रहे थे। ऑफिस मे सेंट्रली ए. सी. लगवाया हुआ था। वोही काम वे ऑफिस मे उनको दी गई केबिन में बेठ कर भी तो कर सकते थे।

मेरे और एक परिचित की बात भी इन महाशय से काफी मिलती जुलती है। फेसबुक-ओरकुट जैसी सोश्यल नेटवर्किंग साइट्स और ब्लॉगिंग सब को अपने विचार रखने की बेरोकटोक छुट देता है। ये सज्जन की सारी पोस्ट्स परिवार की एकता, दोस्तों का प्यार, सब के साथ अच्छा व्यव्हार, पति-पत्नी के रिश्ते को मजबूती कैसे दे, लड़ाई और आपसमे बैर तो किसीके साथ नहीं इत्यादि प्रकार की होती है। खुद अच्छा लिख भी लेते है। उनकी ये सारी बातें उनको बहोत समजदार और ठहरा हुआ इन्सान सिद्ध कर देती है पर सच्चाई तो उनके घरवाले और परिचित ही जानते है। इंटरनेट पर दिखनेवाली संत जैसी सीरत से बिल्कुल विपरीत प्रकृति वाले ये महानुभाव का पारा सातवे आसमान पर ही चढ़ा हुआ होता है। अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने तक वे अपनी महानता का भरपूर दिखावा करेंगे। पर काम निकल जाने पर आपसे नाता तोड्नेमे वे एक क्षण का विलम्ब नहीं करेंगे। एक बार ठान लिया कि फला आदमी को परेशान करना है, तो उसके पीछे ही पड़ जाते है। सामनेवाले की आंखोमे आंसू न आ जाये तब तक उसका पीछा नहीं छोडते। सहनशीलता और परिवार, मित्रो के बिच मेलजोल और प्यार की बुद्धिवाली बातें वे सिर्फ उनकी लेखनी तक ही सिमित रखते है। रोज़ शाम तक उनका एक झगड़ा हो ही जाता है। क्यूँ भाई? ऐसा दोगलापन क्यूँ?

अहमदाबाद से राजकोट जाते वक़्त बस मे क्लीनर ने मूवी लगाया पर सीडी ख़राब थी सो चल न पाई। मेरी बगलवाली सिट पर इंजिनियरिंग का एक विद्यार्थी बेठा हुआ था। हम दोनों ही बातूनी होने के कारण सफ़र अच्छा कटने लगा। उसने अपने चाचा के बारेमे जो बताया वो भी हमारे इस विषयसे अलग नहीं था। घर मे चाचाजी का वैसे तो कोई दूषण नहीं था पर जूठ बोलना उनकी आदत सी बन गई थी। माँ के सामने, बीवी के सामने, बच्चों के सामने अकारण ही जूठ बोलते रहते है। फिल्म देखने गए हो तो बीवी को बोलते है कि माँ को मत बताना, कुछ और बोल देना। माँ के लिए साडी लाएँगे तो उनको कहेंगे कि 'मौसी लाई है' ऐसा सबको बताए। किसीका फोन आये तो बच्चों को फोन दे कर कहने को बोलते है कि 'पापा घर पर नहीं है, मोबाईल भूल गए है' अब तो घरवाले उनके प्यार भरे व्यव्हार पर भी शंका करने लग गए है कि वो भी तो एक दिखावा हो सकता है! अब ऐसे रिश्ते क्या वाकई में रिश्ते है जिसकी बुनियाद जूठ पर टिकी हो, जहा पर भरोसा ही हो। कितना ही गलत आदमी क्यूँ हो पर अपने घर में कर वो भले पूरी तरह से सही पर थोडा सा सही तो बन ही जाता है। अपने परिवार के साथ वो अपनेआप को सुरक्षित महेसुस करता है। महानायक अमिताभ बच्चन जी ने 'कौन बनेगा करोडपति' के एक एपिसोड मे कही हुई एक बात याद यहाँ पर रही है, '' जब तक फिल्म के सेट पर हो तब तक हम वो किरदार निभाते है पर वहा से बहार निकलते ही हम लोग भी आम आदमी बन जाते है।"

ऐसे उदहारण देखते ही हिंदी मे प्रचलित मुहावरा याद आ जाता है। हाथी के दांत, खाने के और, दिखाने के और!!! लोग कहते है, सिर्फ दांतों के कारण ऐसे दोगले लोगों के साथ जोडके हाथी का नाम हम खामखा बदनाम कर रहे है। वास्तवमे आजकी लाइफ-स्टाइल में ऐसे लोगों की संख्या बढती जा रही है, जो अपनेआप को असुरक्षित समजते हो। परिणाम स्वरूप वे स्वार्थ भावना से घिरते जा रहे है और अपनी दुनिया छोटी कर के एक छोटे सर्कल मे अपनेआप को सिमित कर देते है। वहा उनके इलावा वे किसी ओर को स्थान नहीं दे पाते और सिर्फ अपने बारेमे ही सोचने लगते है। एक समय ऐसा भी रहा होगा जब वे ऐसे न थे। पर सही मार्गदर्शन और संगत के अभाव के कारण वे अपने 'वास्तविक स्वभाव' से दूर हो गए है। हम भी इन्ही मे से कोई एक के स्थान पर हो सकते है। इनको बचाना और खुद बचना मुमकिन है। शर्त बस इतनी है कि सिर्फ 'अपने बारेमे' सोचने के बजाये 'अपने भीतर' झांकना सिख ले। थोडा वक्त आँखे बंध करके अपनेआप को जानने की कोशिश करे। सारी समस्याओं का हल निकल आएगा। फिर कोई पराया न रहेगा। जब सब अपने हो जायेंगे तो फिर असुरक्षा कैसी और डर कहा रहेगा? उल्टा हर जगह अपना ही दर लगने लगेगा।

Sunday, August 4, 2013

क्या, वाकई जी रहे है हम?

इस रविवार की शाम ऐसे ही गुज़र जाती जैसे हर सप्ताह होता है। गाँवमें साथ खेलते, पढ़ते बचपन के कुछ खास मित्र दिल्ली में भी अगल बगल में ही रहेते है। आज मेरे उन दोस्तों के साथ कुछ वक्त बिताने से ज्यादा मैंने अपनेआप के साथ समय बिताना चाहा। पता नहीं क्यूँ, तब में कुछ ज्यादा ही चिन्तनशील हो गया था। चाचा घर पे बीमार थे, घर का रिनोवेशन भी हो रहा था। बड़े भैया के घर बेटी का जन्म हुआ था। पड़ोस में रहेते वसी चाचा चल बसे थे। जब छोटा था तब वे हम बच्चों को रोज़ टॉफी खिलाते थे, हमारे साथ खेलते थे, कहानियां सुनाया करते थे। ये ही सब कारन से शायद अपने घर की- अपने गाँव की याद सता रही थी।
सोचा टीवी पर कुछ देखू। भविष्य की परिकल्पना पर चल रहे एक कार्यक्रम ने मेरी सोच को एक नई दिशा दी। भविष्य यानि भूतकाल का बदला हुआ स्वरुप। एक और परिभाषा दे तो, भविष्य यानि हमारी वे सोच का परिणाम जो हम भूतकाल मे चाहते थे।
कुछ दिनों पहेले कही पढ़ा था कि युएस में पैदा होनेवाले हरेक बच्चों का ब्लड सेम्पल और गर्भनाल से स्टेम सेल सरकारी प्रयोगशाला मे पहोंचाया जा रहा है। कहा जाता है कि ऐसा करने का कारण है अमरत्व कि खोज। सायंटिस्टस ऐसी दवाई खोज रहे है जिससे लोग अमरत्व प्राप्त कर लेंगे! यहाँ पर अमरत्व की व्याख्या आज की आयु से बढ़ा कर ४००-५०० साल तक की आयु कर सकते है। दिनबदिन बढ़ रही आबादी को देखते हुए ये दवाई इन्सान की कठिनाइयों में इजाफा ही करेगी ये समजना आसान है। हलाकि, इसका सेवन करके आयु बढ़ाना सबके लिए मुमकिन न होगा क्यूंकि आयुवर्द्धक दवाई कितनी महेंगी होगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।
आज से सो साल पहेले शायद ही किसीने आज के दौर के वाहनों की कल्पना की होगी। किसीने सोचा भी होगा कि धरती के एक छोर से दुसरे छोर तक कुछ ही घंटो में पहोंचना आसन हो जाएगा। जो आज मुमकिन हो चूका है। आज विज्ञान ऐसे ग्रहों की खोज में जुटा हुआ है जहां जीवन पनप सके। और ताज्जुब नहीं होगा अगर सन २१०० में हमारे बच्चे दुसरे ग्रहों पर अपना बसेरा बनाए। अगर विज्ञान हमें अमर बनाने की दवाई खोज पाया तो हम जिन्दा होंगे और शायद हम हर साल, दो साल में अपने पोते पोतियों के साथ खेलने के लिए एक ग्रह से दुसरे ग्रह तक एयर क्राफ्ट से आने-जाने लगेंगे।
मोबाईल और इन्टरनेट जैसी टेक्नोलोजी ने पूरी दुनिया बदल दी है। एक पल में ही ये टेक्नोलोजी हमे पूरी दुनिया के साथ जोड़ सकती है। १५ साल पहेले इसकी कल्पना भी नामुमकिन थी। आनेवाला कल हमें इससे भी आगे ले जाएगा। बटन दबाते ही हम शारीरिक रूप से भी एक जगह से दूसरी जगह पहोंच जायेंगे। मैथोलोजिकल फिल्मो में दिखाए जाते चमत्कार विज्ञान की सहायता से वास्तव मे हो सकेंगे। लोग अद्रश्य हो सकेंगे, हवा मे  उड़ना उनके लिए सिर्फ एक बटन दबाने जितना दूर होगा।
टेक्नोलोजी का विकास अनिष्ट तत्वों से निजात पाने मे मदद करेगा। ड्रोन विमान जैसी खोज लादेन को मार गिराने मे महत्वपूर्ण रही। लादेन जैसे, समाज के दुश्मनों को वश मे करने के लिए ओर ज्यादा अत्याधुनिक शस्त्र बनेंगे। हर सिक्के के दो पहेलु होते है। ठीक वैसे ही यह विकास विनाशकारी हथियारों को भी जन्म देगा। जितने बड़े और टेक्नीकल शस्त्र होंगे, वे उतने ही बड़े विनाश का संभव निश्चित करेंगे। हिरोशिमा-नागासाकी का विनाश भला कौन भूल सकता है?
आराम, सुविधाए ओर ज्यादा बढ़ेगी। ऑफिस मे रोबोट पर्सनल सेक्रेटरी के काम किया करेंगे। घर का सारा काम, यहाँ तक की बच्चो को संभालना, उनका खाना-पीना, स्कूल, होमवर्क से ले कर उनके सोने तक का ख्याल भी रोबोट के जिम्मे होगा। पर इसके साथ ही संबंधो की परिभाषा भी बदल ही जाएगी। रोबोट के साथ रहेते रहेते लोग उनके जैसे ही हो जायेंगे। दिल के रिश्तो की अहेमियत ही नहीं रहेगी और लोग खुद मशीन जैसे ही हो जायेंगे।
ये सब सोचते-सोचते पता नहीं कब मेरी आँखे लग गई और में सपनो की दुनियां मे चला गया। जो भुत, वर्तमान या भविष्य, कही पर थी। मैंने देखा की चाचा घर पे बीमार थे और उनकी देखभाल के लिए एक यंत्रमानव था। घर को जब चाहे तब बटन दबाते ही दुसरे ही स्वरूप मे ढला जा सकता था। अब हमें रिनोवेशन की जरुरत थी। बड़े भैया के घर बेटी का जन्म हुआ था, और तब में घर से दूर हो कर भी एक उपकरण की मदद से वहां, अपनेआप को महेसुस कर पा रहा था। पड़ोस में रहेते वसी चाचा चल बसे थे। पर डॉक्टर्सने एक इंजेक्शन लगा कर उनकी सांसे फिरसे शुरू कर दी। दूसरी तरफ टीवी पर न्यूज़ चल रहे थे। तीसरा विश्वयुद्ध अपनी चरमसीमा पर था और आधी से ज्यादा धरती खून से लथबथ थी। और तभी अचानक एक खौफ ने मुझे नींद से जगा दिया। और खुशियों से छलकते वर्तमान प्रदान करनेवाले इश्वर के चरणोंमे मेरा शीश झुक गया।
मुझे अच्छी तरह याद  है वो पल। बड़े ज्ञानी, विद्वान् ऋषि मुनि जो कहे गए है  वैसे ही समाधी के ही वो पल थे। थोड़े पल के लिए ही सहीपर मेरे मन मे भूतकाल की कोई स्मृति भी थी और था भविष्य का कोई विचार। इश्वर के चरनोमे शीश झुकाए हुए में सिर्फ वही पर था। वर्तमानमे। शायद वो ही क्षण रहे होंगे, जब में जिन्दगी सही मायनेमे जी रहा था।


Wednesday, April 24, 2013

કેનિબલીઝમ-માનવ ભક્ષણ (Cannibalism)





ઈતિહાસમાં ડોકિયું કરીએ તો ખોરાક માટે મનુષ્ય જીવહત્યા કરતો આવ્યો છે. પરંતુ પેટની આગ ઓલવવા માટેની હત્યા બીજા માનવની હોય તો? બીજા શબ્દોમાં કહીએ તો માનવભક્ષણ દ્વારા ભૂખ ભાંગવી! વિચાર કાળજું કંપાવનારો છે. પરંતુ મને-કમને સંજોગોનો શિકાર થઈને માનવભક્ષી બનવું પડ્યું હોય એવા લોકોની વાત "હિસ્ટ્રી ટીવી ૧૮" પર "કેનિબલિઝમ-એક્સ્ટ્રીમ સર્વાઈવલ" નામનાં એક ખાસ કાર્યક્રમમાં રજૂ કરવામાં આવી હતી.




ભારતમાં અઘોરી લોકો ખાસ વિધિ કરીને મૃત્યુ પામેલા લોકોના શબનો આહાર કરતા હોવાની વાતો ઘણીવાર ઊંડી ચર્ચા અને વિચારણાનું કારણ બનતી આવી છે. સામાન્ય સંજોગોમાં માનવી પોતાના જેવા બીજા માનવીને મારીને ખાઈ જવાની કલ્પના પણ કરી શકતો નથી. આમ કરવું માનવ પ્રકૃતિની વિરુદ્ધ છે. પરંતુ જીવન ટકાવી રાખવા માટે આવું પગલું ભરવું જરૂરી બની ગયું હોય એવા કિસ્સાઓ પણ નોંધાયેલા છે. "કસ્ટમ ઓફ સી" તરીકે ઓળખાતી એક પરંપરામાં વાતનો ઊલ્લેખ કરાયો છે. દરિયાઈ પ્રવાસે નીકળેલા નાવિકો મધદરિયે અટવાઈ જાય. સાથે લીધેલો ખોરાકનો જથ્થો પણ ખૂટી જાય. જીવન બચાવવાની અન્ય કોઈ શક્યતા દેખાઈ રહી હોય ત્યારે તમામ લોકો મૃત્યુ પામે માટે કોઈ એકનું મૃત્યુ અને તેના માંસ દ્વારા બીજાઓનો જીવ બચાવવાની વાતનો સંદર્ભ ટાંકવામાં આવ્યો છે.

૧૮૨૦ના દાયકાની શરુઆતમાં ગ્રેટ બ્રીટનનાં કારાગૃહો નાના-મોટા ખીસ્સાકાતરૂઓથી માંડીને ખૂંખાર હત્યારાઓથી ઊભરાઈ રહી હતી. આવા ગુનેગારોમાથી અધમ અપરાધીઓને સામાન્ય જનજીવનથી ખૂબ દૂર, ઓસ્ટ્રેલિયા ખાતેનાં તસ્માનિયા ટાપુનાં મેક્વાયર હાર્બર પર મોકલી સમાજ અને સંસ્કૃતિથી તદ્દન વિખૂટા પાડી દેવામાં આવતા. ખૂંખાર અપરાધીઓ ત્યાં રહીને જીવતા રહેવાને બદલે ફાંસીને માંચડે ચડવું પસંદ કરતાં. નિયમનો ભંગ કરનારને એક સજા હતી, કૃરતાપૂર્વકના ચાબુકનાં ફટકાં. ૧૮૨૨નાં સપ્ટેમ્બર મહિનામાં આઠ અપરાધીઓને અસહ્ય સજા ફટકારવામાં આવી. અંતે તેઓની સહનશક્તિનો અંત આવ્યો ત્યારે તેઓ કોઈ રીતે નજર ચૂકાવી પોતે પહેરેલા એક જોડ કપડાં અને કોઈપણ સમયે પૂરો થઈ જાય એટલા ખોરાક સાથે ભાગી છૂટ્યાં. યોજના મૂજબ તેમણે ચોરેલી બોટ દ્વારા દરિયા પાર કરવાનો હતો. પરંતુ એમના કારસો પર પાણી ફરી વળ્યું. સત્તાધિકારીઓને જાણ થતાં તેમણે કેદીઓ દરિયાઈમાર્ગે ભાગી શકે પ્રકારની વ્યવસ્થા કરી. હવે નાસી છૂટેલા કેદીઓ પાસે જમીનમાર્ગ એકમાત્ર વિકલ્પ બચ્યો હતો.

ભાગેડુ કેદીઓ હવે એક ઊજ્જડ અને વેરાન સ્થળમાં ધકેલાઈ ચૂક્યાં હતાં. તેઓ શક્ય એટલી ઝડપથી તસ્માનિયાનાં વસવાટ યોગ્ય સ્થળ પર પહોંચી જવા માગતા હતા. પણ માટે તેમણે પાર કરવાનાં હતા ૯૬ કિલોમીટર. તસ્માનિયાના વિસ્તારની સૌથી મોટી સમસ્યા છે કે ત્યાં ખોરાક મળવો અશક્ય છે. ઊજ્જડ વિસ્તારમાં સંઘર્ષ કરતાં-કરતાં ભાગેડું કેદીઓમાંનોં રોબર્ટ ગ્રીનહીલ નામનો અપરાધી તેમનો લીડર બની ચૂક્યો હતો. ખોરાકનો જથ્થો સમાપ્ત થઈ ગયો હતો. પ્રવાસના આઠમાં દિવસ સુધીમાં તો ભોજનનાં અભાવે તેઓ ખૂબ અશક્ત થઈ ગયા હતા. બચી હતી તો એક માત્ર કુહાડી, જે તેમણે ભાગતી વખતે પોતાની સાથે લઈ લીધી હતી. તેમાંનું કોઈ જાણતું હતું કે કુહાડી તેમનાં જીવન માટે ખતરો બનવાની હતી. અંદરોઅંદર ફૂટ પડવી શરુ થઈ ચૂકી હતી. તેઓ બે દળમાં વહેંચાઈ ગયા. લીડર ગ્રીનહીલ અને તેના મિત્ર ટ્રેવર્સ સાથે મળીને બોડેન્હમ, મેધર્સ અને પીયર્સનું એક ગૃપ અને ડોલ્ટન, કેનર્લી અને બ્રાઊનનું બીજું પ્રમાણમાં નબળું અને અશક્ત ગૃપ.

આવા સંજોગોમાં ગ્રીનહીલે "કસ્ટમ્સ ઓફ સી" ની પરંપરાનો સુજાવ આપ્યો. તેણે કહ્યું કે ડ્રો કરીને તેમાં જે હારશે તેની હત્યા કરીને તેનો ખોરાક બનાવવો. તેનું કહેવું હતું કે કોઈ એકનું બલિદાન જરૂરી છે જેથી બાકીનાં લોકો જીવી શકે. ગ્રીનહીલનાં કેમ્પનાં લોકો તૈયાર થઈ ગયા પરંતુ ડ્રો ને બદલે તેમણે તટસ્થ રહીને શિકારની પસંદગી કરી લીધી હતી. હતો બીજા ગૃપનો ડોલ્ટન. ગ્રીનહીલે કુહાડીનાં એક ઘા સાથે ડોલ્ટનના માથાનાં કટકા કરી નાખ્યા. ગ્રીનહીલ અને ટ્રેવર્સે માંસથી પોતાની ભૂખ સંતોષી. ભૂખે મરી રહેલાં તમામ લોકો માટે પરિસ્થિતિ ખૂબ અઘરી હતી. બીજી સવારે ભૂખની પિડાએ બાકીનાં લોકોના ડર કે સંશયને તોડી નાખ્યા અને તેમણે પણ પોતાનું પેટ ભર્યું. ત્યારબાદ તેમણે બાકી બચેલા માંસની વહેંચણી કરી. ડોલ્ટનની હત્યા બાદ બીજા ગૃપનાં બ્રાઊન અને કેનર્લીએ બચવા માટે ત્યાંથી ભાગી છૂટવાની યોજના બનાવી હતી. કુહાડીનો ઘા સહન કરવાને બદલે તેમણે મેક્વાયર હાર્બરની કૃર અને યાતના ભરેલી જીંદગી પસંદ કરી. તેઓ ધીમે-ધીમે છૂટા પડીને પાછાં ફર્યા.

બાકીનાં પાંચ અપરાધીઓ વસાહતી વિસ્તાર તરફ આગળ વધી રહ્યાં હતાં. હવે તેઓ જીવન-મરણની અત્યંત જોખમી રમતમાં પ્રવેશ કરી ચૂક્યાં હતાં. ગ્રીનહીલે કુહાડી પોતાના હાથમાં રાખીને પોતાની સત્તા ટકાવી રાખી હતી. ડોલ્ટનનું માંસ પણ પૂરું થઈ ગયું. ત્યારબાદ કરવામાં આવેલા ડ્રોમાં કમનસીબ શિકાર હતો બોડેન્હમ. તેની કૃરપણે કતલ કરી જીવિત રહેલા લોકોએ નું માંસ આરોગ્યું. હવે તેઓ, ગ્રીનહીલ-ટ્રેવર્સ અને મેધર્સ-પીયર્સ એમ બે જૂથમાં વહેંચાઈ ગયા હતા. પરંતુ પીયર્સ શક્તિશાળીને ઓળખી ગયો હતો. તે ગ્રીનહીલ અને ટ્રેવર્સ સાથે જોડાઈ ગયો. આથી આગલો શિકાર બન્યો મેધર્સ .

હવે માત્ર ત્રણ જણ બચ્યા હતાં, બે મિત્રો ગ્રીનહીલ-ટ્રેવર્સ અને એક બહારની વ્યક્તિ, એલેક્ઝાંડર પીયર્સ. જાણતો હતો કે ગ્રીનહીલ અને ટ્રેવર્સ મિત્રો હોવાને લીધે હવે પછીનો શિકાર પોતે બનવાનો છે. પરંતુ એનું નસિબ જોર કરતું હતું. ટ્રેવર્સેથી અજાણતાં એક ખોટું પગલું ભરાઈ ગયું અને તેને એક ઝેરી સાપ ડંખી ગયો. ગ્રીનહીલ ટ્રેવર્સને છોડવા નહોતો માગતો. બન્ને જણ એને ટેકો આપીને આગળ વધી રહ્યા હતા. પરંતુ ખોરાકનાં અભાવે રીતે લાંબે સુધી આગળ વધવું અસંભવ હતું. ટ્રેવર્સને ગેંગરીન થવું શરુ થઈ ચૂક્યું હતું. તેથી એણે કહ્યું કે મને મારી નાખો. તેમણે એમ કર્યું અને હવે બચ્યાં હતાં માત્ર બે લોકો, ગ્રીનહીલ અને પીયર્સ. ટ્રેવર્સનાં માંસનાં સહારે તેઓ આગળ વધવા લાગ્યા. એક રસપ્રદ પણ ભયાનક પ્રશ્ન બન્નેના મનમાં સળવળી રહ્યો હતો, હવે શું થશે. બન્ને એકબીજાને ભરોસો આપવાનો પ્રયત્ન કરી રહ્યા હતા કે હવે તેઓ વસાહતની ખૂબ નજીક પહોંચી ગયા છે. અને એકબીજાને ઈજા નહીં પહોંચાડીએ. પણ બન્નેમાંથી કોઈને એકબીજા પર વિશ્વાસ હતો.

સવાલ હતો કે કોણ કેટલી હદ સુધી જાગી શકે છે. લગભગ ત્રણ-ચાર દિવસ તેઓ સતત જાગતાં રહ્યાં. કોની આંખ મિચાય અને કોણ કોનું ધડ અલગ કરી દે. અંતે ગ્રીનહીલ ટકી શક્યો. ઊંઘને કારણે કુહાડી હાથમાંથી સરકી ગઈ અને પીયર્સે તે છીનવીને એનાં માથાની આરપાર કરી નાખી. તાજા માંસનાં સહારે એકમાત્ર બચેલો પીયર્સ વધુ એક અઠવાડિયું કાઢી શક્યો. ભાગી છૂટ્યાનાં અંદાજે પચાસેક દિવસ પછી છેવટે તે માનવ વસવાટમાં પહોંચી ગયો. પરંતુ અહીં તે લાંબો સમય સ્વતંત્રતાનો સ્વાદ ચાખી શક્યો. સત્તાધીશોને તેની માનવભક્ષણની વાત પર વિશ્વાસ બેઠો. તેમની ધારણા હતી કે પીયર્સનાં સાથીદારો કોઈ જગ્યાએ ઝાડી-ઝાખરાંમાં છૂપાઈને જીવી રહ્યા છે, અને છૂટકારો મેળવવા કાલ્પનિક વાત ફેલાવી રહ્યા છે. પીયર્સને ફરી મેક્વાયર હાર્બર મોકલી દેવામાં આવ્યો. અહીં તેનું સ્વાગત ખૂબ સારુ રહ્યું. અધિકારીઓ તરફથી નહીં પરંતુ અન્ય અપરાધીઓ તરફથી. જાણે તેમનો હીરો બની ચૂક્યો હતો. ખાસ કરીને એક યુવાન, થોમસ કોક્સ માટે. થોમસ ત્યાંથી ભાગી છૂટવા માટે તેની મદદ લેવા માગતો હતો. તેનું કહેવું હતું કે તેની પાસે એવા ઘણાં સાધનો છે જે ત્યાંથી નીકળવાં માટે ઊપયોગી હોય. પીયર્સના અનેકવારનાં ઇન્કાર પછી પણ થોમસનું ભાગી છૂટવાનું દબાણ વધી રહ્યું હતું. અંતે પીયર્સ ફરી ભાગી છૂટવા માટે રાજી થઈ ગયો અને બન્ને ગૃપમાંથી છટકીને જંગલનાં રસ્તે નીકળી પડ્યાં. પાંચેક દિવસનાં પ્રવાસ બાદ તેઓ વિશાળ નદી પાસે પહોંચ્યાં. અહીં પહોંચ્યા બાદ થોમસે પોતાને તરતાં નહીં આવડતું હોવાની વાત જણાવી. હવે તેમની પાસે માત્ર બે વિકલ્પો હતાં. પાછા ફરી જવું અને ચાબૂકનાં સણસણતાં ફટકાં ખાવા અથવા તો ફરીથી જમીનમાર્ગ પસંદ કરવો, જે અશક્ય હતું.

નિરાશાની ચરમસીમા પર ઊભેલા પીયર્સનાં હાથે થોમસનો ભોગ લીધો. હવે પણ પીયર્સના પેટની આગ સંતોષવા માટેનો ખોરાક બની ગયો હતો. બચેલા માંસ સાથે તે આગળ વધ્યો. બે-એક દિવસ વિત્યા બાદ તેની આસપાસની ભયાનક એકલતા તેને પ્રાયશ્ચિત તરફ દોરી ગઈ. હવે પસ્તાવો તેનો જીવ લઈ રહ્યો હતો. તે ફસડાઈ પડ્યો અને તેણે આત્મ સમર્પણ કર્યું. આત્મા પરનો બોજ હળવો કરવા માટે તેણે આદમખોર હોવાની કબૂલાત કરી. નિ:શંકપણે તેને હત્યા બદલ દોષી જાહેર કરવામાં આવ્યો. હવે તે ધર્મનો આશરો શોધવા લાગ્યો પરંતુ જાણતો હતો કે પશ્ચાતાપ માટે તેની પાસે હવે લાંબું જીવન હતું. એલેક્ઝાંડર પીયર્સ, એક ભૂખ્યો અપરાધી, જે માનવમાંસનો આદિ થઈ ચૂક્યો હતો તેણે આખરે ૧૮૨૪ની ૧૯મી જુલાઈનાં રોજ ફાંસીને માંચડે ચડીને પોતાની યાત્રા પૂરી કરી.